10 इतिहास

औद्योगीकरण का युग

भारत का कपड़ा उद्योग का युग

भारत में बने सूती कपड़े की अच्छी क्वालिटी के कारण यूरोप के बाजार में उसकी बड़ी अच्छी मांग थी। इससे यहाँ के बुनकरों का जीवन सुखमय चल रहा था लेकिन जैसे जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव बढ़ता गया वैसे वैसे हालात भी बदलते गये।

अठारहवीं सदी के मध्य तक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपना बिजनेस जमा लिया था। इस अवधि में व्यापार के पुराने केंद्रों (जैसे सूरत और हुगली) का पतन हो चुका था, और व्यापार के नये केंद्रों (जैसे कलकत्ता और बम्बई) का उदय हुआ।

जब एक बार ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी राजनैतिक प्रभुता स्थापित कर ली तो इसने व्यापार पर अपने एकाधिकार को जताना शुरु कर दिया।

गुमाश्ता

कम्पनी ने कपड़ा व्यवसाय से जुड़े हुए पारंपरिक व्यापारियों और दलालों को उखाड़ना शुरु किया। उसके बाद कम्पनी ने बुनकरों पर सीधा नियंत्रण बनाने की कोशिश की। इस काम के लिए लोगों को वेतन पर रखा गया। ऐसे लोगों को गुमाश्ता कहा जाता था। गुमाश्ता का काम था बुनकरों के काम की निगरानी करना, आने वाले माल का संग्रहण करना और कपड़े की क्वालिटी की जाँच करना।

कम्पनी यह कोशिश भी करती थी कि बुनकर किसी दूसरे ग्राहक के साथ डील न कर लें। इस काम को पुख्ता करने के लिये एडवांस के सिस्टम का सहारा लिया जाता था। इस सिस्टम के तहत बुनकरों को कच्चे माल खरीदने के लिए कर्ज दिया जाता था। जब कोई बुनकर कर्ज ले लेता था तो इस बात के लिये बाध्य हो जाता था कि किसी अन्य व्यापारी को अपना माल न बेचे।

एडवांस के इस नये सिस्टम ने बुनकरों के लिए कई समस्याएँ खड़ी कर दी। पहले वे खाली समय में थोड़ी बहुत खेती कर लेते थे ताकि परिवार का पेट भरने के लिये काम भर का अनाज उगा सकें। अब उनके पास खाली समय नहीं बचता था। उन्हें अपनी जमीन काश्तकारों को देनी पड़ती थी।

पारंपरिक व्यापारियों के विपरीत गोमाश्ता बाहरी आदमी होता था। उसका गाँव में कोई नातेदार रिश्तेदार नहीं होता था। वह अपने सिपाहियों और चपरासियों के साथ आता था। समय पर काम न पूरा होने की स्थिति में बुनकरों को दंड भी देता था। गोमाश्ता अक्सर हेकड़ी दिखाया करता था। कई बार गोमाश्ता और बुनकरों के बीच लड़ाई भी हो जाती थी।

एडवांस के सिस्टम के कारण कई बुनकर कर्ज के जाल में फँस गये। कर्णाटक और बंगाल के कई स्थानों पर तो बुनकर अपने गाँव छोड़कर दूसरे गाँवों में चले गये ताकि अपना करघा लगा सकें। कई बुनकरों ने एडवांस लेने से मना कर दिया, अपनी दुकान बंद कर दी और खेती करने लगे।

मैनचेस्टर का भारत में प्रकोप

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही भारत से कपड़ों के निर्यात में कमी आने लगी। 1811 – 12 में भारत से होने वाले निर्यात में सूती कपड़े का शेअर 33% था जो 1850 – 51 आते आते मात्र 3% रह गया।

ब्रिटेन के निर्माताओं के दबाव के कारण सरकार ने ब्रिटेन में इंपोर्ट ड्यूटी लगा दी ताकि इंगलैंड में सिर्फ वहाँ बनने वाली वस्तुएँ ही बिकें। ईस्ट इंडिया कम्पनी पर भी इस बात के लिए दबाव डाला गया कि वह ब्रिटेन में बनी चीजों को भारत के बाजारों में बेचे। अठारहवीं सदी के अंत तक भारत में सूती कपड़ों का आयात न के बराबर था। लेकिन 1850 आते-आते कुल आयात में 31% हिस्सा सूती कपड़े का था। 1870 के दशक तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 70% हो गई। इस तरह से भारत सूती कपड़े के निर्यातक से अब कच्ची कपास के निर्यातक में बदल चुका था।

भारत में हाथ से बने सूती कपड़ों की तुलना में मैनचेस्टर की मशीन से बने हुए कपड़े अधिक सस्ते थे। इसलिये बुनकरों का मार्केट शेअर गिर गया। 1850 का दशक आते आते भारत के सूती कपड़े के अधिकांश केंद्रों में भारी गिरावट आ गई।

1860 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में गृह युद्ध शुरु हो चुका था। इसलिए वहाँ से ब्रिटेन को मिलने वाले कपास की सप्लाई बंद हो चुकी थी। इसके परिणामस्वरूप ब्रिटेन को भारत की ओर मुँह करना पड़ा। अब भारत से कपास ब्रिटेन को निर्यात होने लगा। इससे भारत के बुनकरों के लिए कच्चे कपास की भारी कमी हो गई।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारत में भी सूती कपड़े के कारखाने खुलने लगे। भारत के पारंपरिक सूती कपड़ा उद्योग के लिए यह किसी आखिरी आघात से कम न था।