7 इतिहास

दिल्ली सुल्तान

बारहवीं सदी तक दिल्ली एक आम शहर हुआ करता था। उसके बाद जब राजपूत राजाओं ने इसे अपनी राजधानी बनाई तो धीरे धीरे दिल्ली का राजनैतिक महत्व बढ़ता गया। मुगल शासन के समय दिल्ली का राजनैतिक महत्व अपने चरम पर पहुँच गया।

तोमर राजपूतों ने बारहवीं सदी में दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई। उसके बाद बारहवीं सदी के मध्य में चौहान राजपूतो ने तोमर को हराकर दिल्ली पर कब्जा किया। इन राजाओं के शासन के दौरान दिल्ली एक महत्वपूर्ण व्यावसायिक केंद्र बन चुका था। यहाँ पर कई जैन व्यापारी रहते थे जिन्होंने कई मंदिर बनवाए थे। यहाँ पर देहलीवाल नाम से प्रसिद्ध सिक्के ढ़ाले जाते थे।

तेरहवीं सदी की शुरुआत में दिल्ली सल्तनत की शुरुआत हुई। इसके साथ ही दिल्ली धीरे धीरे ऐसी राजधानी बन गई जिसका उपमहाद्वीप के अधिकतर क्षेत्रों पर नियंत्रण होने लगा। दिल्ली सल्तनत उन पाँच राजवंशों से बना है जिन्होंने अलग अलग समय पर शासन किया। इन सुलतानों ने कई शहर बसाये जिन्हें आज हम सामूहिक रूप से दिल्ली के नाम से जानते हैं। इन शहरों के कुछ उदाहरण हैं: दिल्ली-ए कुह्ना, जहाँपनाह, सीरी, फिरोजाबाद, आदि।

दिल्ली के शासक

राजपूत राजवंश

तोमर: बारहवीं सदी की शुरुआत से 1165 तक
अनंग पाल: 1130 से 1145
चौहान: 1165 से 1192
पृथ्वीराज चौहान: 1175-1192

शुरुआती तुर्की शासक

कुतुबुद्दीन ऐबक: 1206 - 1210
शमसुद्दीन इल्तुतमिश: 1210 - 1236
रजिया: 1236 - 1240
गयासुद्दीन बलबन: 1266 - 1287

खलजी राजवंश

जलालुद्दीन खलजी: 1290 - 1296
अलाउद्दीन खलजी: 1296 - 1316

तुगलक राजवंश

गयासुद्दीन तुगलक: 1320 - 1324
मुहम्मद बिन तुगलक: 1324 - 1351
फिरोज शाह तुगलक: 1351 - 1388

सैय्यद राजवंश

खिज्र खान: 1414 - 1421

लोदी राजवंश

बहलुल लोदी: 1451 – 1489

तारीख या तवारीख

दिल्ली सुलतान के समय के इतिहास के बारे में उस समय के लेखकों द्वारा लिखी गई सामग्री को तारीख कहते हैं। तवारीख इसी का बहुवचन है। तवारीख को फारसी में लिखा गया था जो उस समय के प्रशासन की भाषा थी। तवारीख लिखने वाले (सचिव, प्रशासक, कवि, दरबारी) लोग विद्वान होते थे। ऐसे लोग शहर में (खासकर दिल्ली में) रहते थे और शायद ही गाँवों में रहते थे। ये लोग उपहार के लालच में सुलतानों का इतिहास लिखा करते थे। ये लोग शासकों को सही शासन और सामाजिक व्यवस्था पर सलाह भी देते थे। उनके हिसाब से जन्म और लैंगिक आधार पर ही एक आदर्श समाज बनाया जा सकता था।

रजिया सुल्तान

इल्तुतमिश की बेटी रजिया 1236 में सुलतान बनी थी। लेकिन एक महिला शासक को अधिकतर लोग अपने गले नहीं उतार पा रहे थे। इसलिए चार वर्ष बाद ही 1240 में रजिया को गद्दी छोड़नी पड़ी।

सल्तनत का विस्तार

तेरहवीं सदी तक दिल्ली सल्तनत गैरिसन यानी छावनी से आगे नहीं फैल पाया था। शहर के बाहर के इलाके शायद ही सुलतान के शासन में आए थे। इसलिए, उन्हें अपनी जरूरतों के लिए व्यापार, उपहार और लूटपाट पर निर्भर रहना पड़ता था।

उस जमाने में विद्रोह, युद्ध और यहाँ तक कि खराब मौसम से भी आस पास के इलाकों से संपर्क टूट जाता था। इसलिए दिल्ली की छावनी से बंगाल और सिंध जैसे दूर दराज के इलाकों पर नियंत्रण करना बहुत मुश्किल था। दिल्ली के सुलतानों के सामने कई चुनौतियाँ होती थीं, जैसे अफगानिस्तान के मंगोल द्वारा आक्रमण और सूबेदार जो जरा सी कमजोरी दिखते ही विद्रोह कर देते थे। उस समय के सुलतान बड़ी मुश्किल से इन चुनौतियों से उबर पाते थे।

दिल्ली सल्तनत का ठीक से विस्तार गयासुद्दीन बलबन, अलाउद्दीन खलजी और मुहम्मद तुगलक के समय हुआ। इन सुलतानों के समय आंतरिक और बाहरी सीमाओं, यानी दोनों मोर्चों पर विस्तार का काम हुआ।

आंतरिक सीमाओं पर युद्ध

ये लड़ाइयाँ उपमहाद्वीप के भीतरी इलाकों के छावनी शहरों पर कब्जा करने के उद्देश्य से लड़ी गई थीं। इस कोशिश में गंगा यमुना दोआब के जंगलों को साफ किया गया और खानाबदोश लोगों को वहाँ से खदेड़ दिया गया। फिर उन जमीनों को किसानों को दे दिया गया। व्यापार मार्ग की सुरक्षा बढ़ाई गई और नये शहर और किले बनाकर क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ावा दिया गया।

बाहरी सीमाओं पर युद्ध

अलाउद्दीन खलजी के समय दक्षिण भारत में सैनिक अभियान शुरु किये गये और मुहम्मद तुगलक के समय ये अभियान समाप्त हुए। इन अभियानों में हाथी, घोड़े और गुलाम कब्जे में ले लिए जाते थे और सोना चाँदी जैसी महंगी धातु लूट ली जाती थी। मुहम्मद तुगलक के शासन काल के अंत तक महाद्वीप के एक ब‌ड़े भाग पर दिल्ली सल्तनत का कब्जा हो चुका था।