7 इतिहास

नगर, मंदिर, शिल्पीजन

मध्ययुगीन नगर कई प्रकार के होते थे, जैसे मंदिर नगर, प्रशासनिक केंद्र, व्यावसायिक शहर और पत्तन नगर। कुछ नगर ऐसे भी थे जहाँ एक से अधिक किस्मों के शहरों के लक्षण होते थे। कोई नगर प्रशासनिक केंद्र के साथ साथ व्यावसायिक केंद्र भी हो सकता था और वहाँ महत्वपूर्ण मंदिर भी हो सकता था।

तंजवूर

चोल राजवंश की राजधानी तंजवूर एक प्रशासनिक नगर था। इस नगर में सेना की छावनी भी थी। तंजवूर नगर में एक व्यस्त बाजार भी था जहाँ अनाज, मसालों, कपड़ों, जेवरातों, आदि की खरीद बिक्री होती थी। तंजवूर एक मंदिर नगर भी था। उस जमाने में मंदिर कई प्रकार की सामाजिक और आर्थिक क्रियाओं के केंद्र होते थे।

मंदिर के धन का इस्तेमाल व्यवसाय और बैंकिंग को वित्तीय सहायता देने के लिए किया जाता था। समय बीतने के साथ मंदिर के आस पास कई पुजारी, शिल्पी, मजदूर, व्यापारी, आदि बस गये। इस तरह मंदिर नगर का आकार बड़ा होता चला गया।

मध्ययुग के मंदिर नगर के कुछ उदाहरण
भिल्लस्वामिन या भिसला या विदिशामध्यप्रदेश
सोमनाथगुजरात
कांचीपुरम, तिरुवन्नमलाई और मदुरैतमिलनाडु
तिरुपतिआंध्रप्रदेश
वृंदावनउत्तर प्रदेश

अजमेर

राजस्थान का यह शहर बारहवीं शताब्दी में चौहान राजाओं की राजधानी हुआ करती थी। बाद में मुगल साम्राज्य में यह सूबे की राजधानी बनी। अजमेर में धार्मिक सौहार्द्र का बेहतरीन उदाहरण देखने को मिलता था। महान सूफी संत, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती बारहवीं सदी में अजमेर में आकर बस गए। हर समुदाय के लोग उनके अनुयायी थे। अजमेर के निकट स्थित पुष्कर झील ने सैंकड़ों वर्षों से तीर्थयात्रियों को आकर्षित किया है।

व्यापार

छोटे नगरों का नेटवर्क

आठवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप में कई छोटे-छोटे नगर थे। कई बड़े गाँव विकसित होकर छोटे नगर बन गए। इन नगरों के बाजार को मंडपिका (बाद में मंडी) कहा जाता था। बजार की गलियों को हट्ट कहते थे जहाँ दुकानों की कतार होती थी। अलग-अलग शिल्पकर्मियों के लिए अलग-अलग गलियाँ होती थीं। उदाहरण: कुम्हार हट्ट, तेली हट्ट, चीनी हट्ट, आदि।

कुछ व्यापारी एक जगह से दूसरी जगह भी जाते थे। कई लोग सुदूर इलाकों से स्थानीय उत्पाद खरीदने आते थे। ऐसे लोग दूसरे स्थानों की वस्तुएँ भी बेचते थे, जैसे नमक, कपूर, घोड़े, केसर, सुपारी, काली मिर्च, आदि।

जमींदार की भूमिका

इन नगरों में या उनके पास सामंतों या जमींदारों द्वारा किलेबंद महल बनवाए गये थे। ये लोग व्यापारियों, शिल्पकारों और चीजों पर कर वसूलते थे। जमींदार कभी कभी टैक्स वसूलने का अधिकार स्थानीय मंदिर को दे देते थे जो उन्हीं के द्वारा बनवाया गया था। मंदिर के अभिलेखों से टैक्स वसूलने के अधिकार के दान का पता चलता है।

छोटे और बड़े व्यापारी

उस जमाने में कई तरह के व्यापारी होते थे। घोड़े के व्यापारी अपने संघ बनाते थे और फिर संघ का मुखिया ग्राहकों से मोलभाव करता था। लंबी दूरी की यात्रा करने वाले व्यापारी अक्सर कारवां बनाकर चलते थे और अपने हितों की रक्षा के लिए व्यापार-संघ (गिल्ड) बनाते थे।

आठवीं सदी से ही दक्षिण भारत में ऐसे कई गिल्ड बनने लगे थे। मणिग्रामम और नानादेशी काफी मशहूर गिल्ड थे। इन संघों का व्यापार पूरे उपमहाद्वीप में, और दक्षिण-पूर्वी एशिया तथा चीन तक फैला हुआ था। बंजारों की गिनती भी व्यापारियों में होती थी।

कुछ अन्य व्यापारी समुदायों के नाम हैं चेट्टियार, मारवाड़ी ओसवाल और गुजराती व्यापारी। समय बीतने के साथ मारवाड़ी ओसवाल, भारत में प्रमुख व्यापारी समुदाय बन गया। गुजराती व्यापारियों के दो समुदाय थे, हिंदू बनिया और मुस्लिम बोहरा। गुजराती व्यापारियों का कारोबार लाल सागर के बंदरगाहों, फारस की खाड़ी, चीन, पूर्वी अफ्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशिया तक फैला था। ये लोग कपड़ा और मसाले बेचते थे और अफ्रीका से सोना और हाथी दाँत, चीन से मसाले, टिन, मिट्टी के नीले बरतन और चांदी खरीदते थे।

पश्चिमी तट के नगरों में अरबी, फारसी, चीनी यहूदी और सीरिया के इसाई बसे हुए थे। इटली के व्यापारी लाल सागर के बंदरगाहों से भारत के मसाले और कपड़े खरीदकर उन्हें यूरोप के बाजारों तक पहुँचाते थे। इस काम में उन्हें भारी मुनाफा होता था। भारतीय मसालों और सूती कपड़ों की आदत पड़ जाने के बाद यूरोप के व्यापारी भारत की ओर आने लगे।

शिल्पकार

बिदर के शिल्पकार तांबा और चाँदी पर नक्काशी के लिए इतने मशहूर थे कि उस कला का नाम बिदरी पड़ गया। मंदिर बनाने के लिए पांचाल या विश्वकर्मा समुदाय की अहम भूमिका थी और इस समुदाय में सोनार, लोहार, ठठेरे, राजमिस्त्री और बढ़ई शामिल थे।

महलों, विशाल भवनों, हौज और जलाशय बनाने में भी इनकी अहम भूमिका होती थी। सालियार या कैक्कोलार समुदाय इतना संपन्न हो चुका था कि मंदिरों के लिए दान भी करने लगा। कपड़ा बनाने के कुछ चरण स्वतंत्र शिल्प के रूप में उभर चुके थे, जैसे कपास की सफाई, कताई और रंगाई।