7 इतिहास

मुगल साम्राज्य

जब्त और जमींदार

किसानों की उपज से मिलने वाला राजस्व ही मुगलों की आमदनी का मुख्य जरिया था। अधिकतर जगहों पर मुखिया या स्थानीय सरदार, किसानों से जागीर वसूलते थे। इन सभी माध्यमों के लिए जमींदार शब्द का इस्तेमाल होता था।

अकबर के राजस्वमंत्री टोडरमल ने दस साल (1570-1580) के दौरान कृषि की पैदावार, कीमतों और कृषि भूमि का सर्वेक्षण किया। फिर उन आँकड़ों के आधार पर हर फसल पर नकद के रूप में कर (राजस्व) तय किया गया। हर सूबे (प्रांत) को राजस्व मंडलों में बाँटा गया और हर मंडल की हर फसल के लिए राजस्व दर की अलग सूची बनाई गई। राजस्व वसूलने की इस व्यवस्था को जब्त कहा जाता था।

कुछ क्षेत्रों के जमींदार इतने शक्तिशाली थे कि मुगल प्रशासकों द्वारा शोषण की स्थिति में विद्रोह कर सकते थे। कभी कभी एक ही जाति के जमींदार और किसान मिलकर विद्रोह कर देते थे। सत्रहवीं सदी के अंत से ऐसे विद्रोहों की संख्या बढ़ने लगी थी।

अकबर की नीतियाँ

अकबर ने प्रशासन की मुख्य रूप रेखा बनाई थी। इसका विस्तार से वर्णन अबुल फजल की अकबरनामा (खासकर से आइने-अकबरी) में मिलता है। अबुल फज्ल के अनुसार मुगल साम्राज्य कई प्रांतों या सूबों में बँटा था जिसके प्रशासक सूबेदार कहलाते थे। सूबेदार पर राजनैतिक और सैनिक, दोनों तरह के कामों की जिम्मेदारी होती थी। हर सूबे में एक वित्तीय अधिकारी होता था जिसे दीवान कहते थे। प्रशासन में सहयोग के लिए अन्य अफसर थे, जैसे बक्शी (सैनिक वेतनाधिकारी), सदर (धार्मिक और धर्मार्थ कार्यों का मंत्री), फौजदार (सेनानायक) और कोतवाल (नगर का पुलिस अधिकारी)।

अकबर के अभिजात, बड़ी सेनाओं का संचालन करते थे और वे बड़ी मात्रा में राजस्व खर्च कर सकते थे।

1570 में जब अकबर फतेहपुर सीकरी में था तो उसने विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के साथ धर्म के मामलों पर चर्चा शुरु की। इस विचार विमर्श से अकबर यह समझने लगा कि जो विद्वान धार्मिक रीति और मतांधता पर बल देते हैं, वे अक्सर कट्टर होते हैं। इसलिए अकबर ने सुलह-ए-कुल या सर्वत्र शांति के विचार को मानने की शुरुआत की। इसके अनुसार, विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में कोई अंतर नहीं था। वह ऐसी व्यवस्था लागू करना चाहता था जिसमें केवल सच्चाई, न्याय और शांति पर बल था। अकबर की इस नीति का पालन जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी किया।

सत्रहवीं शताब्दी और उसके बाद मुगल साम्राज्य

मुगल साम्राज्य की प्राशासनिक और सैनिक कुशलता के परिणामस्वरूप आर्थिक और वाणिज्यिक समृद्धि में बढ़ोतरी हुई। लेकिन सामाजिक असमनाताएँ अपने चरम पर थीं। कुल मनसबदारों की एक छोटी संख्या 5.6 प्रतिशत के हिस्से में ही साम्राज्य के अनुमानित राजस्व का 61.5 प्रतिशत मिल जाता था। इस राजस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा वेतन और वस्तुओं पर खर्च होता था। इससे किसानों और शिल्पकारों को लाभ होता था। लेकिन राजस्व का भार अत्यधिक होने से किसानों या शिल्पकारों के पास इतनी बचत नहीं होती थी कि निवेश कर सकें। इस व्यवस्था में धनी किसान, शिल्पकारों के समूह, व्यापारी और महाजन तो मुनाफा कमा लेते थे लेकिन गरीब किसानों और शिल्पकारों की कमर टूट जाती थी।

बहुत अधिक धन और संसाधन पर नियंत्रण होने के कारण मुगल के कुलीन वर्ग सत्रहवीं सदी के अंतिम वर्षों में बहुत शक्तिशाली हो गए थे। जब मुगल साम्राज्य का पतन होने लगा तो कई जागीरदार खुद ही सत्ता के शक्तिशाली केंद्र बनने लगे। हैदराबाद और अवध में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं। अठारहवीं शताब्दी तक साम्राज्य के कई सूबे अपनी स्वतंत्र राजनैतिक पहचान बना चुके थे।