8 इतिहास

वूट्ज स्टील

आपने टीपू सुल्तान की तलवार के बारे में कई किस्से सुने होंगे। यह तलवार बहुत कठोर और धारदार होने के कारण खास मानी जाती थी। तलवार की यह खासियत एक विशेष तरह के कार्बन स्टील के कारण थी जिसे वूट्ज स्टील कहते थे। वूट्ज स्टील का उत्पादन पूरे दक्षिण भारत में होता था। वूट्ज स्टील से बनी तलवार की धार बहुत पैनी होती थी और उसपर लहरदार पैटर्न होता था। यह पैटर्न लोहे में कार्बन के बहुत ही छोटे क्रिस्टल के कारण संभव हो पाता था।

फ्रांसिस बुकानन ने 1800 में मैसूर का दौरा किया था और वूट्ज स्टील के उत्पादन की तकनीक के बारे में बहुत कुछ लिखा था। इस स्टील को छोटी भट्ठियों में बनाया जाता था। लोहे को चारकोल के साथ मिलाकर मिट्टी के छोटे बरतनों में रखा जाता था। उसके बाद तापमान के बारीक फेरबदल की सहायता से स्टील की सिल्लियाँ बनाई जाती थीं। उन सिल्लियों का इस्तेमाल तलवार बनाने के लिए ना केवल भारत में होता था बल्कि पश्चिमी और केंद्रीय एशिया में भी होता था।

बाद में कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि उन्नीसवीं सदी के मध्य तक वूट्ज स्टील का उत्पादन समाप्त हो गया। इसका सबसे अहम कारण था ब्रिटेन से स्टील का आयात। लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत छोटे पैमाने पर लोहे के प्रगलन का काम जारी रहा। बिहार और केंद्रीय भारत में लगभग हर जिले में ऐसे लोग थे जो लौह अयस्क का प्रगलन करके कई कामों के लिए लोहा बनाते थे।

लोहे को गलाने के लिए मिट्टी और धूप में सुखाई ईंटों से भट्ठियाँ बनती थीं। लोहे को गलाने का काम पुरुष करते थे और धौंकनी या भाँति चलाने का काम औरतों का होता था। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक लोहे को गलाने की कला विलुप्त होने लगी थी। इसके लिए वन के नये कानून जिम्मेदार थे। इन कानूनों के कारण लकड़ियाँ और चारकोल इकट्ठा करना मुश्किल काम होने लगा था। नये कानूनों के कारण प्रगालकों के लिए लौह अयस्क की खानों तक पहुँचना भी मुश्किल हो गया था।

सरकार ने कुछ वनों में जाने की अनुमति तो दे दी थी, लेकिन उसके लिए प्रगालकों को बहुत अधिक टैक्स देना पड़ता था। इससे मुनाफा कम जाता था। उन्नीसवीं सदी के अंत तक ब्रिटेन से आयात इतना बढ़ चुका था कि छोटे पैमाने पर लोहा बनाने वालों की कमर ही टूट गई। बीसवीं सदी की शुरुआत से भारत में लोहा और स्टील के कारखाने खुलने लगे। इससे छोटे पैमाने पर लोहा बनाने वालों का अस्तित्व ही खत्म हो गया।

भारत में लोहा इस्पात फैक्ट्री की शुरुआत

जमशेदजी टाटा भारत में स्टील प्लांट लगाना चाहते थे। उनके बेटे दोराबजी टाटा ने इसके लिए कई स्थानों पर तलाश की। आखिरकार सुबर्नरेखा नदी के तट पर उन्हें ऐसी जगह मिल गई जहाँ हर जरूरी चीज पास में उपलब्ध थी, जैसे लौह अयस्क, कोयला और पानी। वहीं पर साकची नाम के गाँव के पास टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी की शुरुआत हुई और उस फैक्ट्री में 1912 में उत्पादन शुरु हुआ। उस जगह पर एक शहर बसाया गया जिसे आज हम जमशेदपुर के नाम से जानते हैं।

जब प्रथम विश्व युद्ध शुरु हुआ तो ब्रिटेन के स्टील उत्पादकों को युद्ध की जरूरतों को पूरा करने में व्यस्त रखा गया। ऐसे समय में रेलवे लाइन विछाने के लिए जरूरी लोहे की सप्लाई का काम टिस्को को मिल गया। टिस्को ने रेल के पहिये और तोप के गोलों के खोल भी बनाने शुरु किए। 1919 तक टिस्को में बनने वाले स्टील का नब्बे प्रतिशत उपनिवेशी सरकार खरीद लेती थी। इस तरह से धीरे धीरे ब्रिटिश साम्राज्य में टिस्को सबसे बड़ा स्टील उत्पादक बन गया।