10 इतिहास

एक ग्लोबल विश्व

उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्ध और उपनिवेशवाद

एक तरफ व्यापार के फैलने से यूरोप के लोगों की जिंदगी बेहतर हो गई तो दूसरी तरफ उपनिवेशों के लोगों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा।

जब अफ्रिका के आधुनिक नक्शे को गौर से देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि ज्यादातर देशों की सीमाएँ सीधी रेखा में हैं जो अन्य महादेशों में देखने को नहीं मिलता है। ऐसा लगता है जैसे किसी छात्र ने सीधी रेखाएँ खींच दी हो। 1885 में यूरोप की बड़ी शक्तियाँ बर्लिन में मिलीं और अफ्रिकी महादेश को आपस में बाँट लिया। इस तरह से अफ्रिका के ज्यादातर देशों की सीमाएँ सीधी रेखाओं में बन गईं।

रिंडरपेस्ट

रिंडरपेस्ट या मवेशियों का प्लेग: रिंडरपेस्ट मवेशियों में होने वाली एक बीमारी है। अफ्रिका में रिंडरपेस्ट के का उदाहरण बताता है कि किस तरह से एक बीमारी किसी भूभाग में शक्ति के समीकरण को भारी तौर पर प्रभावित कर सकती है।

अफ्रिका वैसा महादेश था जहाँ पर जमीन और खनिजों का अकूत भंडार था। यूरोपीय लोग खनिज और बागानों से धन कमाने के लिए अफ्रिका पहुँचे थे। लेकिन उन्हें वहाँ मजदूरों की भारी कमी झेलनी पड़ी। अफ्रिका की आबादी बहुत कम थी और वहाँ संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। इसलिये वहाँ के लोगों की जरूरतें आसानी से पूरी हो जाती थीं। इसलिये अधिक मेहनताना देने के बावजूद अफ्रिका के लोग मेहनत नहीं करना चाहते थे। उन्हें इस की कोई जरूरत नहीं होती थी कि पैसे कमाने के लिये काम करें।

यूरोपीय लोगों ने अफ्रिका के लोगों को रास्ते पर लाने के लिए कई तरीके अपनाए। उनमें से कुछ नीचे दिये गये हैं।

रिंडरपेस्ट का प्रकोप

रिंडरपेस्ट का अफ्रिका में आगमन 1880 के दशक के आखिर में हुआ था। यह बीमारी उन मवेशियों के साथ आई थी जो ब्रिटिश एशिया से लाए गए थे। उस समय इटैलियन सैनिक पूर्वी अफ्रिका में एरिट्रिया पर आक्रमण कर रहे थे। इन मवेशियों को उन सैनिकों के राशन के लिये लाया गया था। रिंडरपेस्ट पूरे अफ्रिका में किसी जंगल की आग की तरह फैल गई। यह बीमारी इतनी तेजी से फैली कि 1892 आते आते बीमारी अफ्रिका के पश्चिमी तट तक पहुँच चुकी थी। इस दौरान रिंडरपेस्ट ने अफ्रिका के मवेशियों की आबादी का 90% हिस्सा साफ कर दिया।

अफ्रिकियों के लिए मवेशियों का नुकसान होने का मतलब था रोजी रोटी पर खतरा। अब उनके पास खानों और बागानों में मजदूरी करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। इस तरह से मवेशियों की एक बीमारी ने यूरोपियन को अफ्रिका में अपना उपनिवेश फैलाने में मदद की।

भारत से बंधुआ मजदूरों का पलायन

वैसे मजदूर जो किसी खास मालिक के लिए किसी खास अवधि के लिए काम करने को प्रतिबद्ध होते हैं बंधुआ मजदूर कहलाते हैं। आधुनिक बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य भारत और तामिल नाडु के सूखाग्रस्त इलाकों से कई गरीब लोग बंधुआ मजदूर बन गए। इन लोगों को मुख्य रूप से कैरेबियन आइलैंड, मॉरिशस और फिजी भेजा गया। कई को सीलोन और मलाया भी भेजा गया। भारत में कई बंधुआ मजदूरों को असम के चाय बागानों में भी काम पर लगाया गया।

मजदूरों को बहाल करने वाले एजेंट अक्सर झूठे वादे करते थे। इन मजदूरों को ये भी पता नहीं होता था कि वे कहाँ जा रहे हैं। इन मजदूरों के लिए नई जगह पर बड़ी भयावह स्थिति हुआ करती थी। उनके पास कोई कानूनी अधिकार नहीं होते थे और उन्हें कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता था।

1900 के दशक से भारत के राष्ट्रवादी नेता बंधुआ मजदूर के सिस्टम का विरोध करने लगे थे। इस सिस्टम को 1921 में समाप्त कर दिया गया।

विदेशों में भारतीय व्यवसायी

इस दौरान भारत के व्यवसायियों ने भी तरक्की की और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सा लेने लगे।

शिकारीपुरी श्रौफ और नट्टुकोट्टई चेट्टियार का नाम भारत के नामी बैंकर और व्यवसायियों में आता है। वे दक्षिणी और केंद्रीय एशिया में कृषि निर्यात में पूँजी लगाते थे। भारत में और विश्व के विभिन्न भागों में पैसा भेजने के लिए उनका अपना ही एक परिष्कृत सिस्टम हुआ करता था।

भारत के व्यवसायी और महाजन उपनिवेशी शासकों के साथ अफ्रिका भी पहुँच चुके थे। हैदराबाद के सिंधी व्यवसायी तो यूरोपियन उपनिवेशों से भी आगे निकल गये थे। 1860 के दशक तक उन्होंने पूरी दुनिया के महत्वपूर्ण बंदरगाहों पर फलते फूलते इंपोरियम भी बना लिये थे।

भारतीय व्यापार, उपनिवेश और वैश्विक सिस्टम

भारत से उम्दा कॉटन के कपड़े वर्षों से यूरोप निर्यात हो रहे थे। लेकिन औद्योगीकरण के बाद स्थानीय उत्पादकों ने ब्रिटिश सरकार को भारत से आने वाले कॉटन के कपड़ों पर प्रतिबंध लगाने के लिए बाध्य किया। इससे ब्रिटेन में बने कपड़े भारत के बाजारों में भारी मात्रा में आने लगे। 1800 में भारत के निर्यात में 30% हिस्सा कॉटन के कपड़ों का था। 1815 में यह गिरकर 15% हो गया और 1870 आते आते यह 3% ही रह गया। लेकिन 1812 से 1871 तक कच्चे कॉटन का निर्यात 5% से बढ़कर 35% हो गया। इस दौरान निर्यात किए गए सामानों में नील (इंडिगो) में तेजी से बढ़ोतरी हुई। भारत से सबसे ज्यादा निर्यात होने वाला सामान था अफीम जो मुख्य रूप से चीन जाता था।

भारत से ब्रिटेन को कच्चे माल और अनाज का निर्यात बढ़ने लगा और ब्रिटेन से तैयार माल का आयात बढ़ने लगा। भारत कच्चे माल का निर्यातक बन गया और तैयार उत्पाद का आयातक बन गया। इससे एक ऐसी स्थिति आ गई जब ट्रेड सरप्लस ब्रिटेन के हित में हो गया। इस तरह से बैलेंस ऑफ पेमेंट ब्रिटेन के फेवर में था। भारत के बाजार से जो आमदनी होती थी उसका इस्तेमाल ब्रिटेन अन्य उपनिवेशों की देखरेख करने के लिए करता था। ब्रिटेन इस पैसे का इस्तेमाल भारत में रहने वाले अपने ऑफिसर को ‘होम चार्ज’ देने के लिए करता था। भारत के बाहरी कर्जे की भरपाई और रिटायर ब्रिटिश ऑफिसर (जो भारत में थे‌) का पेंशन का खर्चा भी होम चार्ज के अंदर ही आता था।