10 इतिहास

एक ग्लोबल विश्व

युद्ध के बाद के समझौते

दूसरा विश्व युद्ध पहले के युद्धों की तुलना में बिलकुल अलग था। इस युद्ध में आम नागरिक अधिक संख्या में मारे गये थे और कई महत्वपूर्ण शहर बुरी तरह बरबाद हो चुके थे। दूसरे विश्व युद्ध के बाद की स्थिति में सुधार मुख्य रूप से दो बातों से प्रभावित हुए थे।

विश्व के नेताओं की मीटिंग हुई जिसमें युद्ध के बाद के संभावित सुधारों पर चर्चा की गई। उन्होंने दो बातों पर ज्यादा ध्यान दिया जिन्हें नीचे दिया गया है।

ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन

1944 की जुलाई में अमेरिका के न्यू हैंपशायर के ब्रेटन वुड्स नामक जगह पर यूनाइटेड नेशंस मॉनिटरी ऐंड फिनांशियल कॉन्फ्रेंस हुआ। इस कॉन्फ्रेंस में इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड की स्थापना हुई। इस संस्था को सदस्य देशों के बाहरी नफे और नुकसान की देखभाल के लिये बनाया गया।

युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण की फंडिंग के लिए इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवलपमेंट की स्थापना की गई। इसे वर्ल्ड बैंक के नाम से भी जाना जाता है। आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक को ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन भी कहा जाता है। इसलिए युद्ध के बाद की आर्थिक प्रणाली को ब्रेटन वुड्स सिस्टम भी कहा जाता है।

आइएमएफ और वर्ल्ड बैंक ने 1947 में अपना काम शुरु कर दिया। इन संस्थाओं में लिए जाने वाले निर्णय को पश्चिमी औद्योगिक शक्तियाँ कंट्रोल करती थीं। अहम मुद्दों पर तो अमेरिका का वीटो चलता था।

ब्रेटन वुड्स सिस्टम का आधार था विभिन्न मुद्राओं के लिए एक निर्धारित विनिमय दर। डॉलर की कीमत को सोने की कीमत से जोड़ा गया जिसमें एक आउंस सोने की कीमत थी 35 डॉलर। अन्य मुद्राओं को डॉलर के मुकाबले अलग-अलग निर्धारित दरों पर रखा गया।

युद्ध के बाद के शुरुआती साल

ब्रेटन वुड्स सिस्टम ने पश्चिम के औद्योगिक देशों और जापान में एक अप्रत्याशित आर्थिक विकास के युग की शुरुआत कर दी। 1950 से 1970 के बीच विश्व का व्यापार 8% की दर से बढ़ा और आमदनी लगभग 5% की दर से बढ़ी। ज्यादातर औद्योगिक देशों में बेरोजगारी 5% से भी कम थी। इससे पता चलता है कि इस अवधि में कितनी आर्थिक स्थिरता आई थी।

उपनिवेशों का अंत और आजादी

दूसरे विश्व युद्ध के दो दशकों के भीतर कई उपनिवेश आजाद हो गए और नए राष्ट्र के रूप में सामने आये। शोषण के एक लंबे इतिहास के कारण ये देश भारी आर्थिक संकट में थे। शुरुआती दौर में ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन इस स्थिति में नहीं थे कि इन देशों की माँग को पूरा कर सकें। इस बीच यूरोप और जापान ने तेजी से तरक्की कर ली थी और ब्रेटन वुड्स इंस्टिच्यूशन से स्वतंत्र हो गये थे। 1950 के दशक के आखिर में आकर इन इंस्टिच्यूशन ने दुनिया के विकासशील देशों की ओर ध्यान देना शुरु किया।

ये संस्थाएँ पुरानी उपनिवेशी ताकतों के नियंत्रण में थी। इसलिए ज्यादातर विकासशील देशों पर अभी भी इस बात का खतरा था कि पुरानी उपनिवेशी ताकतें उनका शोषण कर सकती हैं। एक नए आर्थिक ढ़ाँचे की माँग रखने के लिए इन देशों ने G – 77 (77 देशों का समूह) बनाया। उनकी माँगें थीं; अपने प्राकृतिक संसाधनों पर सही मायने में नियंत्रण, कच्चे माल की सही कीमत और विकसित बाजारों में बेहतर पकड़।

ब्रेटन वुड्स का अंत और भूमंडलीकरण

1960 आते आते विदेशों में अधिक दखलअंदाजी करने के कारण अमेरिका की ताकत में कमी आने लगी थी। सोने की तुलना में डॉलर अपनी कीमत को बचा नहीं पा रहा था। इस तरह से निर्धारित विनिमय दर की प्रणाली समाप्त हुई और अस्थाई विनिमय दर की परिपाटी शुरु हुई।

1970 के दशक के मध्य के बाद से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था कई मायने में बदल गई। पहले विकासशील देश किसी भी अंतर्राष्ट्रीय संस्था से वित्तीय सहायता की माँग कर सकते थे। लेकिन अब उन्हें पश्चिम के कॉमर्शियल बैंकों और प्राइवेट लेंडिंग संस्थाओं से कर्ज लेने के लिये बाध्य होना पड़ता था। इससे कई बार विकासशील देशों में कर्जे की समस्या, बेरोजगारी और गिरती आमदनी की समस्या खड़ी हो जाती थी। कई अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों को इस तरह की कठिनाइयों से गुजरना पड़ा।

1949 की क्रांति के बाद चीन बाकी दुनिया से अलग थलग था। अब चीन ने भी नई आर्थिक नीतियों को अपनाना शुरु कर दिया और विश्व की अर्थव्यवस्था के करीब आने लगा। कई पूर्वी यूरोपियन देशों में सोवियत स्टाइल की कम्यूनिज्म के पतन के बाद कई नए देश भी विश्व की नई अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गये।

चीन, भारत, ब्राजील, फिलिपींस, मलेशिया, आदि देशों में पारिश्रमिक काफी कम थी। इसलिए कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ इन देशों को अपने उत्पाद बनाने के लिए इस्तेमाल करने लगीं। भारत बिजनेस प्रॉसेस आउटसोर्सिंग का एक महत्वपूर्ण हब बन गया। पिछले दो दशकों में कई विकासशील देशों ने तेजी से वृद्धि की है। भारत, चीन और ब्राजील इसके बेहतरीन उदाहरण हैं।