8 इतिहास

शूद्रों की स्थिति

समाज में जाति पर आधारित विभाजन था जो आज भी है। ब्राह्मण और क्षत्रिय को उच्च जाति का या सवर्ण माना जाता था। उनके बाद व्यापारियों और साहूकारों का स्थान होता था। किसान और काश्तकार का दर्जा तीसरा होता था। इन लोगों को वैश्य की श्रेणी में रखा जाता था। जो लोग साफ सफाई का काम करते थे उन्हें शूद्र कहा जाता था। शूद्रों को अछूत माना जाता था। किसी सवर्ण पर शूद्र की छाया पड़ने को भी अधर्म माना जाता था। शूद्र लोगों को मंदिरों में जाने की इजाजत नहीं थी। वे सवर्णों के लिए बने कुएँ से पानी नहीं ले सकते थे और उनके तालाबों या घाटों पर स्नान नहीं कर सकते थे।

जाति और समाज सुधार

राजा राममोहन रॉय ने प्राचीन बौद्ध ग्रंथों का हवाला देते हुए जाति व्यवस्था की आलोचनी की। प्रार्थना समाज में भक्ति परंपरा को माना जाता था जिसमें हर जाति के लिए धार्मिक समानता पर बल दिया जाता था। 1840 में जाति व्यवस्था को समाप्त करने के उद्देश्य से बम्बई में परमहंस मंडली की स्थापना हुई। उनमें से अधिकतर सुधारक और ऐसे संगठनों के सदस्य ऊँची जाति से थे। अपनी गुप्त बैठकों में वे अक्सर भोजन और स्पर्श से संबंधित जाति संबंधित पाबंदियों का उल्लंघन करते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे लोगों से छुपकर निचली जाति के लोगों के साथ भोजन करते थे और उन्हें स्पर्श करने से परहेज भी नहीं करते थे।

उन्नीसवीं सदी में ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी और निचली जाति के बच्चों के लिए स्कूल खोलना शुरु किया। शिक्षा ने उन्हें ऐसा हथियार दे दिया जिससे वे अपनी दुनिया बदल सकते थे। उसी समय नौकरी की तलाश में भारी संख्या में गरीब लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे थे। कुछ तो बागानों में काम करने के लिए असम, मॉरीशस, ट्रिनिडाड और इंडोनेशिया भी चले गये। नई जगह पर काम ने उन्हें अपने गाँव में सवर्णों के अत्याचार से मुक्ति दे दी।

नौकरियों के कई अन्य अवसर भी खुलने लगे। जैसे, आर्मी में बहुत नौकरियाँ थीं। डॉ बी. आर. अम्बेदकर के पिता आर्मी के स्कूल में टीचर थे। अंबेदकर महार जाति के थे जिसे महाराष्ट्र में अछूत माना जाता है।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में गैर ब्राह्मण जाति के लोगों ने भी जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाना शुरु कर दिया था। इनके कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं।

घासीदास ने केंद्रीय भारत में सतनामी आंदोलन की शुरुआत की। वह चमड़े का काम करने वाले लोगों के उत्थान के लिए काम करते थे।

हरीदास ठाकुर के मतुआ पंथ ने पूर्वी बंगाल में काम किया। वह चांडाल काश्तकारों के लिए काम करते थे।

श्री नारायण गुरु आधुनिक केरल के ऐझावा जाति से थे। वे जाति के आधार पर भेदभाव की आलोचना करते थे। उनका मानना था हर इंसान की एक ही जाति होती है।

गुलामगिरी

ज्योतिराव फुले निचली जाति के नेताओं में एक मजबूत आवाज थे। उनका जन्म 1827 में हुआ था। उनकी पढ़ाई लिखाई ईसाई मिशनरी स्कूल में हुआ था। वे ब्राह्मणों के सबसे श्रेष्ठ होने के दावे को खारिज करते थे। उनका कहना था कि आर्य बाहर से आए थे और यहाँ के मूल वाशिंदों को गुलाम बना लिया था। उनका कहना था कि यहाँ की जमीन का असली हक निचली जाति के लोगों को था और ऊँची जाति के लोगों का उसपर कोई हक नहीं था। जातिगत समानता को बढ़ावा देने के लिए फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। 1873 में उन्होंने गुलामगिरी नाम से एक किताब लिखी थी। इस किताब को उन्होंने अमेरिका के उन लोगों को समर्पित किया था जिन्होंने गुलामी के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी।

मंदिर में प्रवेश

दलितों को मंदिरों में प्रवेश का अधिकार दिलाने के लिए अंबेदकर ने कई आंदोलन किए। दलितों को मंदिर में जाने की इजाजत नहीं थी। 1927 से 1935 के बीच अम्बेदकर ने ऐसे तीन आंदोलन किए।

ई. वी. रामास्वामी नायकर

उन्हें पेरियार के नाम से भी बुलाया जाता था। उनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। वह कांग्रेस के सदस्य थे। एक बार कांग्रेस द्वारा आयोजित एक भोज में जब उन्होंने जाति के हिसाब से बैठने की अलग-अलग व्यवस्था देखी तो उन्हें बड़ा बुरा लगा। उसके बाद पेरियार ने स्वाभिमानी आंदोलन शुरु किया। उन्हें लगता था कि अछूत ही तमिल और द्रविड़ की मूल संस्कृति के रखवाले हैं। उन्हें लगता था हर धार्मिक नेता और मुखिया को लगता है कि सामाजिक विभाजन और असमानता भगवान की देन है। इसलिए अछूतों को सामाजिक समानता पाने के लिए हर प्रकार के धर्म से मुक्त होना पड़ेगा।