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कृषि

आर्थिक क्रिया के प्रकार

पौधे से कई उत्पाद बनते हैं। पौधे से उत्पाद बनने के क्रम में तीन तरह की आर्थिक क्रियाएँ होती हैं, प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक।

प्राथमिक क्रियाएँ: प्राकृतिक संसाधनों को निकालने और उनके उत्पादन से संबंधित क्रियाएँ प्राथमिक क्रियाएँ कहलाती हैं। उदाहरण, कृषि, मछली पालन, संग्रहण, आदि।

द्वितीयक क्रियाएँ: प्राकृतिक संसाधनों के विनिर्माण के कामों को द्वितीयक क्रिया की श्रेणी में रखते हैं। उदाहरण, इस्पात उद्योग, बेकरी, कपड़े की बुनाई, आदि।

तृतीयक क्रियाएँ: प्राथमिक और द्वितीयक क्रियाओं को सहारा देने वाले कामों को तृतीयक क्रिया की श्रेणी में रखा जाता है। उदाहरण, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, फिनांस, आदि।

कृषि के आर्थिक महत्व का अंदाजा दो बातों से लगाया जा सकता है। दुनिया की आबादी का पचास प्रतिशत कृषि कार्यों में लगा हुआ है। भारत के दो तिहाई लोग आजीविका के लिए खेती पर निर्भर हैं।

कृषिगत भूमि: जिस जमीन पर फसल उगाई जाती है उसे कृषिगत भूमि कहते हैं। खेती के अनुकूल स्थलाकृति और जलवायु महत्वपूर्ण कारक हैं।

कृषि तंत्र: कृषि एक तरह का तंत्र है जिसमें कई निवेश और प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं। मशीन, बीज, खाद, आदि कृषि में निवेश होते हैं। जुताई, सिंचाई, कटाई, आदि प्रक्रियाएँ हैं और फसल उत्पाद है।

कृषि के प्रकार

खेती दो प्रकार की होती है, निर्वाह कृषि और व्यावसायिक कृषि।

निर्वाह कृषि

जब परिवार का पेट पालने भर के उद्देश्य से खेती की जाती है तो उसे निर्वाह कृषि कहते हैं। इस तरह की खेती में साधारण टेक्नॉलोजी और घर के सदस्यों के श्रम का इस्तेमाल होता है। खेती की जमीन छोटी होती है और पैदावार भी कम होती है। निर्वाह कृषि को दो वर्गों में बाँटा जाता है, गहन निर्वाह कृषि और आदिम निर्वाह कृषि।

  1. गहन निर्वाह कृषि: इस तरह की खेती में जमीन का आकार छोटा होता है, साधारण औजारों और अधिक श्रम का इस्तेमाल होता है। जिन स्थानों की जमीन उपजाऊ है और जहाँ साल के अधिकतर दिनों को अच्छी धूप मिलती है, इस तरह की खेती के लिए सही होते हैं। सही जलवायु होने पर किसान एक वर्ष में एक से अधिक फसल उगा लेता है। इस तरह की खेती की मुख्य फसल धान है। इसके अलावा, गेहूँ, मक्का, दाल और तेलहन की फसल भी उगाई जाती है। दक्षिण, दक्षिणपूर्व और पूर्वी एशिया के मानसून वाले इलाकों में गहन निर्वाह कृषि काफी लोकप्रिय है।
  2. आदिम निर्वाह कृषि: इस तरह की कृषि के उदाहरण हैं स्थानांतरी कृषि और चलवासी पशुचालन शामिल हैं।
  1. स्थानांतरी कृषि: भारत में इसे झूम कृषि भी कहते हैं। इस तरह की खेती में जमीन के एक छोटे टुकड़े को वहाँ के पेड़ों को काटकर और जलाकर साफ कर दिया जाता है। उसके बाद मिट्टी में राख को मिला दिया जाता है और बीज छिड़क दिए जाते हैं। एक दो वर्ष के बाद उस जमीन को परती छोड़ दिया जाता है और किसी नई जमीन को साफ किया जाता है। इस तरह की खेती अमेजन, उष्णकटिबंधीय अफ्रीका, दक्षिणपूर्वी एशिया और पूर्वोत्तर भारत के जंगलों में की जाती है।
  2. चलवासी पशुचारण: इस तरह की कृषि में लगे हुए लोग मवेशी, भेड़, बकरियाँ और ऊँट पालते हैं। नये चारागाहों की तलाश में ये गरेड़िये जगह जगह घूमते रहते हैं। इस तरह पशुचारण करने वाले लोग सहारा, मध्य एशिया और भारत के कुछ भागों के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में रहते हैं।

व्यावसायिक कृषि

जब फसल को बेचने के उद्देश्य से खेती की जाती है तो उसे व्यावसायिक कृषि कहते हैं। इस तरह की खेती में जमीन के विशाल हिस्सों पर खेती की जाती है और बड़ी पूँजी लगती है। मानव श्रम पर कम जोर दिया जाता है और भारी मशीनों का इस्तेमाल होता है। व्यावसायिक कृषि में अनाज की खेती, मिश्रित खेती और बागानों को शामिल किया जाता है।

व्यावसायिक कृषि के मुख्य क्षेत्र हैं उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया के शीतोष्ण घास स्थल वाले क्षेत्र। इन इलाकों में कड़ाके की सर्दी के कारण साल में एक ही फसल उगाना संभव हो पाता है। बागानों में चाय, कॉफी, गन्ना, काजू, रबड़, केला और कपास की खेती होती है। बागानों के उत्पाद की प्रॉसेसिंग बागान में या फिर नजदीकी फैक्ट्री में होता है। बागानों के लिए एक अच्छे ट्रांसपोर्ट नेटवर्क की जरूरत होती है। मलेशिया में रबड़, ब्राजील में कॉफी और भारत तथा श्रीलंका में चाय उगाई जाती है।