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महावीर

महावीर भी बुद्ध के आस पास ही आये थे। वह जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर थे। वह लिच्छवी के एक क्षत्रिय राजकुमार थे और वज्जी संघ के सदस्य थे। लगभग 30 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। जीवन के बारे में सत्य जानने के प्रयास में वह वन वन भटकते रहे। बारह वर्ष तक कष्टमय जीवन जीने के बाद महावीर को ज्ञान प्राप्त हुआ।

महावीर की शिक्षा

महावीर ने भी अपने उपदेश प्राकृत में दिये थे, इसलिए उनकी शिक्षा अधिक से अधिक लोगों में फैल पाई। जैन धर्म के अनुयायी को सादा जीवन बिताना पड़ता है। भोजन के लिए भिक्षा मांगकर काम चलाने की जरूरत थी। उसे बिलकुल इमानदार होने की जरूरत थी। चोरी करने की सख्त मनाही थी। महावीर के अनुयायी को ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था, यानि वह शादी नहीं कर सकता था। पुरुषों को हर चीज का त्याग करना था, यहाँ तक कि कपड़ों का भी।

यह साफ है कि जैन धर्म के कठिन नियमों का पालन करना अधिकतर लोगों के लिए मुश्किल था। इसके बावजूद, कई लोगों ने अपना घर बार छोड़ दिया और महावीर के अनुयायी बन गयी। अन्य लोगों ने भिक्खू और भिक्खुनियों को भोजन प्रदान करके ही काम चलाया।

जैन धर्म के सबसे अधिक अनुयायी व्यापारी वर्ग से आये। किसानों को अच्छी फसल के लिए कीड़े मकोड़ों को मारना पड़ता था इसलिए उनके लिए जैन धर्म के नियमों का पालन मुश्किल साबित होता था।

जैन धर्म का प्रसार उत्तरी भारत के विभिन्न भागों, गुजरात, तमिल नाडु और कर्णाटक में हुआ। कई वर्षों तक महावीर और उनके शिष्यों के उपदेश मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचते रहे। इन उपदेशों को लिखित रूप में 1500 वर्ष पहले रचा गया। आज वे उस रूप में गुजरात के वल्लभी में सुरक्षित हैं।

संघ

महावीर और बुद्ध ने अपने अनुयायियों के ठहरने के लिए संघों की व्यवस्था की। जो लोग अपना घर बार छोड़ देते थे उनके लिए बने समूह को संघ कहते थे। महावीर और बुद्ध दोनों का मानना था कि जीवन का मर्म जानने के लिए घर छोड़ना आवश्यक था।

बौद्ध संघों के नियमों को विनय पिटक नामक पुस्तक में संकलित किया गया है। इनमे से कुछ नियम नीचे दिये गये हैं।

संघ का जीवन: संघ में रहने वालों को सादा जीवन जीना पड़ता था। उनका अधिकतर समय ध्यान में बीतता था। वे किसी नियत समय पर शहरों या गांवों में भिक्षा मांगने जा सकते थे। उन्हें भिक्खू और भिक्खुनी कहा जाता था। ये प्राकृत शब्द हैं जिनका मतलब ‘भिखारी’ होता है।

विहार

जैन और बौद्ध साधु धर्मोपदेश का प्रसार करने के लिए भ्रमण करते थे। लेकिन वर्षा ऋतु में यात्रा करना संभवन नहीं था। इसलिए बारिश के मौसम में उन्हें किसी स्थान पर टिकना पड़ता था। उनके कई अनुयायियों ने बगीचों में उनके लिए अस्थाई निवास बनवाए। कई साधु पहाड़ी क्षेत्रों में गुफाओं में भी रहा करते थे। समय बीतने के साथ उनके लिए स्थाई निवास बनने लगे। ऐसे भवनों को विहार कहा जाता था। विहार बनाने के लिए व्यापारियों, जमींदारों और राजाओं ने धन और जमीन दान में दिये। शुरु शुरु में विहार लकड़ी से बनाये गये। बाद में ईंटों से भी विहार बनने लगे। कुछ विहार गुफाओं में बनाये गये, खासकर पश्चिम भारत में।

आश्रम व्यवस्था

उसी जमाने में ब्राह्मणों ने आश्रम व्यवस्था विकसित की। इस व्यवस्था के अनुसार जीवन को चार चरणों में बाँटा गया है, जो इस प्रकार हैं।

  1. ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य आश्रम का पालन करने वाले को सादा जीवन जीना होता है। उसे वेदों का अध्ययन करना होता है।
  2. गृहस्थ: इस आश्रम का पालन करने वाले को शादी करके घर बसाना होता है। उसे परिवार की जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं।
  3. वानप्रस्थ: इस आश्रम का पालन करने वाले को वन में जाकर ध्यान लगाना होता है।
  4. सन्यास: इस आश्रम का पालन करने वाले को अपना सब कुछ त्याग करना होता है।

आश्रम व्यवस्था को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के लिए बनाया गया था। महिलाओं को वेद पढ़ने की अनुमति नहीं थी। कोई भी महिला अपने आप किसी आश्रम का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र नहीं होती थी। महिला को अपने पति के अनुसार किसी आश्रम व्यवस्था का पालन करना होता था।