9 समाज शास्त्र

पालमपुर गाँव की कहानी

ग्रामीण अर्थव्यवस्था

इस चैप्टर में जिस गाँव के बारे में बताया गया है वह एक बड़ा गाँव है। यह गाँव पास के शहर से एक पक्की सड़क द्वारा जुड़ा हुआ है। इस गाँव में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल, सिंचाई सुविधाएँ और बिजली की सुविधा उपलब्ध है।

भारत में पालमपुर जैसे गाँवों की संख्या काफी कम है। आज भी अधिकतर गाँवों में सड़कें नहीं हैं। इन गाँवों में अस्पताल और स्कूल भी नहीं हैं। अधिकतर गाँवों में बिजली की लाइन तो है लेकिन बिजली कभी कभार ही आती है।

पालमपुर जैसे किसी भी गाँव में कई जातियों और धर्मों के लोग रहते हैं। एक गाँव में 50 से लेकर 500 तक परिवार हो सकते हैं। अधिकतर भूमि ऊँची जाति के लोगों के पास होती है। बाकी जमीन पिछ्ड़ी जाति और अल्पसंख्यकों के पास होती है। दलित अक्सर भूमिहीन होते हैं और वे गाँव के बाहर ही रहते हैं।

उत्पदन का संगठन

उत्पादन के संगठन के लिए चार मुख्य आगत की जरूरत होती है: भूमि, श्रमिक, भौतिक पूँजी और मानव पूँजी।

  1. भूमि: यह एक सीमित और दुर्लभ संसाधन है। जमीन को बढ़ाने का कोई भी तरीका नहीं है। जनसंख्या में वृद्धि से भूमि पर दबाव बढ़ता जाता है। हर अगली पीढ़ी में जमीन के बँटवारे के कारण खेती की जमीन का आकार छोटा होता चला जाता है। इससे कृषि की उत्पादकता के पैमाने पर भी असर पड़ता है।
  2. श्रमिक: बेरोजगारों की बड़ी संख्या के कारण श्रमिक प्रचुर मात्रा में मिल जाते हैं। गरीब तबके के लोग अक्सर अनपढ़ होते हैं और इसलिए उन्हें छोटे मोटे काम करने पड़ते हैं। समय समय पर सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय की जाती है। लेकिन मांग और आपूर्ति के प्रतिकूल संतुलन के कारण अक्सर श्रमिकों को तय न्यूनतम मजदूरी से भी कम मेहनताने पर काम करना पड़ता है।
  3. भौतिक पूँजी: औजार, मशीन और भवन स्थाई पूँजी के उदाहरण हैं। बीज और खाद खरीदने के लिए कैश की जरूरत होती है। कच्चे माल और रुपये को कार्यशील पूँजी कहते हैं।
  4. मानव पूँजी: किसी भी किसान को सही तरीके से उत्पादन करने के लिए सही ज्ञान और उद्यमिता की जरूरत होती है। अधिकाँश मामलों में जरूरी ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक दिया जाता है। किसानों की कुशलता और ज्ञान बढ़ाने के लिए सरकार भी कई कदम उठाती है।

कृषि में सुधार

हम जानते हैं कि जमीन का आकार बढ़ाना असंभव है। इसलिए कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए अन्य तरीकों को अपनाने की जरूरत होती है। आधुनिक कृषि तकनीक, मशीन और अधिक उपज वाले बीजों (एच. वाइ. वी) की सहायता से कृषि उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है।

सरकार ने देश के कई हिस्सों में नहरों का जाल बिछा दिया है। इससे सिंचाई की सुविधाओं में काफी सुधार हुआ है। किसानों की सहूलियत के लिए बीज और खाद रियायती दरों पर उपलब्ध कराए जाते हैं।

यदि सिंचाई की सही सुविधा हो तो किसान एक वर्ष में तीन फसलें उगा सकते हैं। बहुविध फसल प्रणाली से भी कृषि उत्पादकता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है।

जमीन के अति उपयोग से हानि

भौम जल का दोहन: हरित क्रांति के बाद, भारत में खाद्यान्नों का उत्पादन कई गुना बढ़ गया है। लेकिन हरित क्रांति ने कई समस्याएँ भी खड़ी कर दी है। कई क्षेत्रों में भौम जल का दोहन होने के कारण इन स्थानों पर भौम जल का स्तर काफी नीचे चला गया है। आज कई गाँवों में पानी की किल्लत एक बड़ी समस्या बन गई है।

रासायनिक उर्वरक से हानि: रासायनिक उर्वरक के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो गई है जिससे खेती की बहुत जमीनों के बंजर होने का खतरा होने लगा है। हरित क्रांति से पहले किसान अक्सर खाद और कम्पोस्ट का इस्तेमाल करते थे। प्राकृतिक खाद और कम्पोस्ट का इस्तेमाल पर्यावरण हितैषी होता है और इसे सतत रूप से लंबे समय तक किया जा सकता है। रासायनिक उर्वरक के अत्यधिक इस्तेमाल से पेय जल भी प्रदूषित हो जाता है।

भूमि का असमान वितरण

अधिकतर गाँवों में भूमि का असमान वितरण है। भूमि के अधिकाँश भाग पर मुट्ठी भर किसानों का कब्जा होता है, जबकि अधिकतर किसानों को जमीन की छोटी टुकड़ियों पर निर्भर रहना पड़ता है। खेती की जमीन यदि छोटे आकार की होगी तो उस किसान को अपने परिवार का भरण पोषण करने में भी कठिनाई आयेगी। भूमिहीन किसानों की स्थिति और भी बदतर है क्योंकि उन्हें आजीविका के लिए दूसरों की जमीन पर काम करना पड़ता है।

पलायन की समस्या

कृषि में रोजगार मौसमी होता है यानि साल के कुछ महीने ही रोजगार मिल पाता है। इसलिए भूमिहीन श्रमिकों को साल के कई महीने खाली बैठना पड़ता है। ऐसे मजदूर काम की तलाश में अक्सर शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई भूमिहीन मजदूर आज पंजाब और हरियाणा चले जाते हैं ताकि वहाँ के खेतों पर काम कर सकें। गाँवों में रोजगार मुहैया कराने के लिए सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) नाम से एक कार्यक्रम शुरु किया है। इस कार्यक्रम के तहत गाँव के हर परिवार के एक सदस्य को एक वर्ष में 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी जाती है। इस कार्यक्रम से कई गाँवों में पलायन की समस्या पर कुछ हद तक लगाम लग पाया है।

पूँजी की समस्या

बड़े किसानों के पास अधिशेष कैश की कमी नहीं होती है। लेकिन छोटे किसानों को अक्सर बीज, खाद और कृषि उपकरण खरीदने के लिए उधार लेने की जरूरत पड़ती है। इन में से कुछ किसानों को तो बैंक से कर्ज मिल जाता है। लेकिन अधिकतर किसानों को सेठ और साहूकार के आगे हाथ पसारना पड़ता है। सेठ साहूकार से कर्ज लेने पर बैंक की तुलना में बहुत अधिक ब्याज दर देना पड़ता है और ऐसे में कर्ज के जाल में फँसने का खतरा रहता है। कई छोटे किसान तो इतना फँस जाते हैं कि पूरी जिंदगी वे केवल सूद चुकाते रह जाते हैं।

अधिशेष पैदावार

फसल कटने के बाद बड़े किसानों के पास अपने इस्तेमाल के अलावा अधिशेष फसल बच जाती है। अधिशेष पैदावार को वे पास की मंडी में बेच देते हैं। मंडियों से शहरों के व्यापारी अनाज खरीदते हैं और उन्हें खुदरा व्यापारियों को बेचते हैं। सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदती है। सरकार जब फसल को खरीदती है तो उसे फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एफ. सी. आई.) के गोदामों में रखा जाता है और फिर जन वितरण प्रणाली (पी. डी. एस.) द्वारा जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाया जाता है।

गैर कृषि कार्य

डेरी: कई किसान अतिरिक्त आय के उद्देश्य से गाय और भैंसे पालते हैं, ताकि दूध बेचकर कुछ पैसे कमा सकें। आजकल ज्यादातर दूध की खरीद दूध को-ऑपरेटिव द्वारा की जाती है।

लघु और कुटीर उद्योग: गाँवों में कुछ लोग छोटे पैमाने पर उत्पादन का काम करते हैं। इस तरह के उत्पादन में बहुत ही मामूली मशीनों और तकनीक का इस्तेमाल होता है और अक्सर परिवार के लोग ही काम में हाथ बँटाते हैं।

दुकान: बड़े गाँवों में आपको कई दुकानें भी दिख जाएंगी। जैसे, किराने की दुकान, कपड़े की दुकान, दवाई की दुकान, आदि।

अन्य क्रियाएँ: कई लोग अन्य आर्थिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं। जैसे, साइकिल मरम्मत की दुकान, ट्यूशन, नाई, मोबाइल फोन की मरम्मत, आदि।

यातायात: कुछ लोग यातायात के व्यवसाय में लगे रहते हैं। कोई रिक्शा चलाता है, तो कोई ऑटोरिक्शा या फिर मिनी बस।