9 समाज शास्त्र

संविधान निर्माण

किसी भी देश या संस्थान को चलाने के लिए आम सहमति से कुछ नियम बनाए जाते हैं। उन्हीं नियमों के संग्रह को संविधान कहते हैं। राजनैतिक पार्टी, क्लब, आर डब्ल्यू ए (रेजिडेंट वेलफेअर एसोशियेशन), क्रिकेट टीम, आदि का अपना अपना संविधान होता है। इसी तरह हर देश में सरकार चलाने और नागरिकों को मिलने वाले अधिकारों के बारे में एक संविधान होता है।

जरूरी नहीं कि जिस देश में संविधान हो वह देश लोकतांत्रिक हो। लेकिन हर लोकतांत्रिक देश में संविधान अवश्य होता है। इस अध्याय में आप भारत के संविधान के निर्माण और उसके प्रावधानों के बारे में संक्षिप्त रूप से पढ़ेंगे। सबसे पहले आप भारत के संविधान निर्माण के पीछे के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे। उसके बाद आप संविधान सभा के बारे में पढ़ेंगे। आखिर में आप संविधान की प्रस्तावना में दिए गये मुख्य शब्दों के सही अर्थ के बारे में पढ़ेंगे।

भारत के स्वाधीनता संग्राम ने इस बात के लिए आम सहमति बनाने में मदद की थी कि आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र का कैसा स्वरूप होगा। राष्ट्रवादी नेताओं के विचारों मे मतभेद थे लेकिन वे सभी इस बात पर एकमत थे कि भारत एक लोकतांत्रिक देश होगा।

संविधान बनने का इतिहास

सबसे पहले 1928 में मोतीलाल नेहरू और आठ अन्य नेताओं ने संविधान का एक प्रारूप तैयार किया था। 1931 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में संविधान के मुख्य उद्देश्यों को लेकर एक प्रस्ताव पास हुआ था। संविधान निर्माण के दोनों प्रयासों में कुछ बातें एक जैसी थीं, जैसे हर वयस्क को मताधिकार, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकार

कांग्रेस के नेताओं ने ब्रिटिश संस्थानों के साथ मिलकर काम किया था जिससे उन्हें किसी देश पर शासन करने के लिए विभिन्न संस्थानों की भूमिका की समझ आ चुकी थी। 1937 में भारत के अंग्रेजी हुकूमत के अधीन भागों में प्रादेशिक एसेंबलियों के लिये चुनाव हुए थे जिससे यहाँ की राजनैतिक पार्टियों को लोक चुनावों में भाग लेने का मौका मिला था। हालाँकि यह पूरी तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं थी लेकिन इससे राष्ट्रवादी नेताओं को सरकार चलाने की कला सीखने का मौका मिला। इस दौरान उन्होंने संस्थाओं के निर्माण और प्रबंधन के बारे में बहुत कुछ सीखा।

राष्ट्रवादी नेताओं ने अन्य देशों के संविधानों की अच्छी बातों को भारत के संविधान में शामिल करके उन्हें यहाँ की जरूरत के हिसाब से ढ़ालने की बात भी सीखी। इसलिए भारत के संविधान में आपको फ्रांस के लोकतंत्र, ब्रिटेन के संसदीय सिस्टम, अमेरिका के मूलभूत अधिकारों और रूस के समाजवाद का प्रभाव देखने को मिलता है।

संविधान सभा

संविधान सभा के लिए 1946 की जुलाई में चुनाव हुए थे। संविधान सभा के सदस्यों को जनता ने प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुना था बल्कि प्रांतीय एसेंबलियों के सदस्यों ने चुना था। फिर भी परोक्ष रूप से इसमें भारत के हर भौगोलिक क्षेत्र और सामाजिक वर्ग का प्रतिनिधित्व था। पूरे भारत के प्रतिनिधित्व के कारण हमारा संविधान समय की कसौटी पर खरा उतरता है। संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 में हुई थी। विभाजन के बाद संविधान सभा का भी विभाजन हुआ था, जिससे भारत और पाकिस्तान की अलग अलग संविधान सभाएँ बनीं थीं। भारतीय संविधान सभा में 299 सदस्य थे। संविधान सभा की सभी बैठकें पारदर्शी तरीके से हुईं ताकि किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले हर मत को सुना जा सके।

भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 को तैयार हुआ और इसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया। इसकी याद में हम हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं।

संविधान का दर्शन

भारत के संविधान के दर्शन को समझने के लिए उसकी प्रस्तावना या उद्देश्यिका को समझना जरूरी है। भारत के संविधान की प्रस्तावना के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं।

हम भारत के लोग: इस कथन का मतलब है कि संविधान को किसी राजा या किसी बाहरी शक्ति ने नहीं प्रदान किया था, बल्कि इसे भारत के लोगों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से तैयार किया था और लागू किया था।

प्रभुत्व संपन्न: इसका मतलब है कि भारत एक स्वतंत्र देश है और कोई भी बाहरी शक्ति भारत की सरकार पर हुक्म नहीं चलाती है। यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजों ने भारत के लिए डोमिनियन स्टैटस की बात की थी जिसमें भारत अंग्रेजी राजतंत्र के अधीन रहता। संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था और पूर्ण स्वतंत्रता को तरजीह दी थी।

समाजवादी: भारत का समाजवाद विभिन्न कम्यूनिस्ट देशों के समाजवाद से बिलकुल अलग है। भारत की समाजवादी विचारधारा में समाज द्वारा संपत्ति अर्जित करने और फिर उसे समान रूप से समाज में बाँटने के बारे में है। यह तय किया गया था कि सामाजिक और आर्थिक असमानता कम करने के लिए भूमि और उद्योग के स्वामित्व पर सरकार का नियंत्रण होगा।

धर्म-निरपेक्ष: भारत में किसी भी धर्म को आधिकारिक धर्म की मान्यता नहीं है और किसी भी धर्म को सरकार से विशेष दर्जा नहीं मिला हुआ है। सरकार हर धर्म को समान भाव से देखती है।

लोकतांत्रिक: भारत की शासन व्यवस्था में शासक जनता द्वारा चुने जायेंगे और जनता को जवाबदेह होंगे। भारत के लोगों को समान राजनैतिक अधिकार मिलेंगे।

गणराज्य: इसका मतलब है कि शासन का मुखिया (राष्ट्रपति) चुनकर आयेगा ना कि किसी वंश या राजकीय खानदान से।

न्याय: भारत का कानून कभी भी जाति, धर्म या लिंग के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करेगा। सरकार गरीबों और पिछड़े लोगों के कल्याण का काम करेगी ताकि सामाजिक असमानता को कम किया जा सके।

स्वतंत्रता: नागरिकों को अपने विचार को अपने तरीके से रखने की पूरी स्वतंत्रता होगी। नागरिकों की स्वतंत्रता पर बिलावजह कोई बंदिश नहीं होगी।

समानता: हर नागरिक कानून की नजर में समान होगा, चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग से आता हो। हर नागरिक को अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए समान अवसर मिलेंगे।

बंधुता: हर नागरिक में भाईचारे की भावना हो और कोई भी किसी दूसरे नागरिक को अपने से कम न समझे।

संस्थाओं का स्वरूप

संविधान केवल मूल्यों और दर्शनों की किताब भर नहीं है। संविधान में इन मूल्यों को संस्थागत रूप देने की बात भी कही गई है। संविधान में सरकार के गठन की प्रक्रिया का विवरण है। संविधान सरकार के विभिन्न अंगों के बीच सत्ता के बँटवारे को परिभाषित करता है। यह किसी भी संवैधानिक संस्था की शक्ति की सीमाओं को भी बताता है। संविधान में नागरिकों को मिले अधिकारों के वर्णन के साथ उन अधिकारों पर लगने वाली पाबंदियों के बारे में भी बताया गया है।