9 समाज शास्त्र

आधुनिक विश्व में चरवाहे

आपने हाईवे से जाते हुए या फिर शहर की सीमा से बाहर चरवाहों को अपनी भेड़ बकरियों के झुंड के साथ जरूर देखा होगा। ऐसे लोगों का जीवन घुमंतू होता है यानि ये कहीं भी टिककर नहीं रहते हैं। भारत में और दुनिया के कई देशों में चरवाहों के कई समुदाय आज भी रहते हैं। मवेशी पालना और दूध, मीट, खाल और ऊन बेचना इनका मुख्य पेशा होता है।

लेकिन जब भी हम इतिहास पढ़ते हैं तो राजा और योद्धाओं के अलावा हम किसानों, व्यापारियों, दस्तकारों, आदि के बारे में पढ़ते हैं। चरवाहों के बारे में बहुत कम ही बताया जाता है। इस अध्याय में आप भारत और अफ्रिका के चरवाहों के बारे में पढ़ेंगे। उपनिवेशी शासन के बाद चरवाहों का जीवन पूरी तरह से बदल गया। इस अध्याय में आप देखेंगे कि उपनिवेशी शासन शुरु होने के बाद चरवाहों को किन समस्याओं से जूझना पड़ा और बदलते समय के अनुसार उनमें क्या बदलाव हुए।

हिमालय के चरवाहे

गुज्जर बकरवाल: गुज्जर बकरवाल जम्मू और कश्मीर के पहाड़ों में रहते हैं। ये भेड़ बकरी पालते हैं। ये घुमंतू लोग उन्नीसवीं सदी में आये थे और फिर यहीं बस गये। हर वर्ष ये लोग गर्मी और जाड़े के चरागाहों में आते जाते रहते हैं। जाड़े में जब पहाड़ों पर बर्फ जम जाती है तो ये लोग शिवालिक की निचली पहाड़ियों में चले जाते हैं ताकि उनके मवेशियों को चारा मिल सके। अप्रैल के महीने में जब गर्मी शुरु हो जाती है तो ये वापस ऊँचे पहाड़ों पर चले जाते हैं, जहाँ तब तक हरी घास उग आती है।

गद्दी: ये चरवाहे हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। ये जाड़े में शिवालिक के निचले इलाकों में रहते हैं और फिर अप्रैल में लाहुल और स्पीति की तरफ चले जाते हैं।

गुज्जर: ये चरवाहे गढ़वाल और कुमाऊँ के क्षेत्र में रहते हैं। जाड़े में ये भाबर के सूखे जंगलों में चले जाते हैं। गर्मियों में ये ऊँचाई पर स्थित चरागाहों, यानि बुग्याल पहुँच जाते हैं। इनमें से कई लोग उन्नीसवीं सदी में जम्मू के पहाड़ों से उत्तर प्रदेश की तरफ पलायन कर चुके थे।

भाबर: गढ़वाल और कुमाऊँ के क्षेत्र में पहाड़ियों के निचले हिस्से में पाया जाने वाला शुष्क जंगल का इलाका भाबर कहलाता है।

बुग्याल: ऊँचे पहाड़ों में स्थित घास के मैदान को बुग्याल कहते हैं।

इनके अलावा हिमालय में रहने वाले अन्य चरवाहे समुदायों के नाम हैं भोटिया, शेरपा और किन्नौरी। ये चरवाहे भी जाड़े और गर्मी के मौसम के हिसाब से अपने ठिकाने बदलते रहते हैं ताकि उनके पशुओं को खाने के लिए चारा मिलता रहे।

पठार और रेगिस्तान के चरवाहे

धंगर: यह चरवाहा समुदाय महाराष्ट्र में रहता है। बीसवीं सदी के आरंभ में धंगर की जनसंख्या लगभग 467,000 थी। इनमें से अधिकतर गड़ेरिये थे, लेकिन कुछ कंबल बुनते थे और कुछ भैंस पालते थे। मानसून के दौरान ये लोग महाराष्ट्र के मध्य मे स्थित पठार में रहते थे। मवेशी पालने के अलावा ये बाजरे की खेती भी करते थे। अक्तूबर में बाजरे की कटाई करने के बाद ये लोग पश्चिम की ओर कोंकण के लिए रवाना हो जाते थे।

कोंकण के किसान उनका खुले दिल से स्वागत करते थे। तब तक कोंकण में धान की कटाई हो जाती थी और खेतों में फसल के ठूँठ बच जाते थे। चरवाहों के मवेशी ठूँठ को खाकर खेत की सफाई कर देते थे और उनके गोबर से खेतों को खाद मिल जाती थी। ये लोग कोंकण के किसानों से चावल भी ले लेते थे क्योंकि पठार में चावल की किल्लत होती थी।

गोल्ला: गोल्ला चरवाहे कर्णाटक और आंध्र प्रदेश के पठारी क्षेत्रों में रहते हैं और मवेशी पालते हैं।

कुरुमा और कुरुबा: ये चरवाहे भी कर्णाटक और आंध्र प्रदेश में रहते थे। ये लोग भेड़ और बकरियाँ पालते थे और कम्बल बेचते थे। ये लोग जंगल के आसपास रहते थे और थोड़ी बहुत खेती भी करते थे। इसके अलावा ये छोटा मोटा व्यापार भी कर लेते थे।

मध्यवर्ती पठार के चरवाहों का एक जगह से दूसरे जगह आने जाने का चक्र मानसून और सूखे मौसम के हिसाब से चलता था। सूखे मौसम में ये लोग तटीय इलाकों में चले जाते थे और मानसून के समय मध्यवर्ती पठारों में।

बंजारा: ये लोग उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में रहते थे। चरागाहों की खोज में ये लंबी लंबी यात्रा करते थे। ये लोग किसानों को मवेशी बेचते थे और बदले में अनाज और चारा खरीदते थे।

राइका: ये चरवाहे राजस्थान के मरुस्थल में रहते थे। मानसून के दौरान बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर और बीकानेर के राइका अपने गाँवों में ही रहते थे क्योंकि वहाँ चारा उपलब्ध रहता था। अक्तूबर में चारे और पानी की तलाश में वे बाहर निकलते थे। राइकाओं का एक समूह (मारु) ऊँट पालता था जबकि दूसरा समूह भेड़ बकरियाँ पालता था।

इन चरवाहों का जीवन कई बातों से प्रभावित होता था। किसी स्थान पर चारे और पानी की मौजूदगी पर यह निर्भर होता था कि वहाँ वे कितने दिनों तक रुकते थे। अपनी यात्रा की योजना बनाने के लिए उन्हें भूगोल और मौसम का ज्ञान दुरुस्त रखना होता था। रास्ते में मिलने वाले किसानों से भी रिश्ते अच्छे बनाने पड़ते थे ताकि दोनों का फायदा हो सके।