9 समाज शास्त्र

नात्सियों का नजरिया

नात्सी विचारधारा के अनुसार मनुष्य एक समान नहीं होते हैं बल्कि उनमें नस्लों के आधार पर ऊँच नीच का भेद होता है। नात्सियों को लगता था नॉर्डिक जर्मन आर्य इस व्यवस्था में सबसे शिखर पर थे और यहूदी सबसे निचले पैदान पर। बाकी नस्लों का स्थान इन दोनों के बीच कहीं था।

आपने बायोलॉजी के लेसन में डार्विन और स्पेंसर के सिद्धांतों के बारे में पढ़ा होगा। डार्विन ने जीवों के विकास को समझाने के लिए प्राकृतिक चुनाव का सिद्धांत दिया था। स्पेंसर ने ऊत्तरजीविता का सिद्धांत दिया था। इन दोनों वैज्ञानिकों के अनुसार, प्रकृति किसी भी जीव के सबसे अच्छे गुणों का चुनाव करती है जो अगली पीढ़ी को मिलते हैं और जो जीव सबसे अधिक फिट होता है वही जीव बदलती परिस्थितियों में जीवित बच पाता है। हिटलर ने इन सिद्धांतों की व्याख्या अपनी जरूरत के हिसाब से की। लेकिन हिटलर शायद यह भूल गया था कि डार्विन या स्पेंसर ने कभी भी मानव हस्तक्षेप की बात नहीं की थी। हिटलर को लगता था कि जो नस्लें समाज में रहने के लिए फिट नहीं थी उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं था। उसे यह भी लगता था कि सबसे शुद्ध नस्ल होने के कारण केवल नॉर्डिक जर्मन आर्य को जीने का अधिकार था।

हिटलर की विचारधारा का दूसरा पहलू लेबेंस्रॉम (जीवन परिधि) की अवधारणा से प्रेरित था। इसके अनुसार वह नॉर्डिक जर्मन आर्य की नस्ल को बढ़ाने के लिए नये इलाकों पर कब्जा करना चाहता था।

नस्लवादी सरकार की स्थापना

नात्सियों ने शुद्ध नस्ल के जर्मन समुदाय को बढ़ाने के लिए तेजी से काम करना शुरु किया। इसके लिए अपने विस्तृत जर्मन साम्राज्य से उन्होंने उन लोगों को खत्म करना शुरु किया जिन्हें वे अवांछित मानते थे। वे मानते थे कि शुद्ध और स्वस्थ नॉर्डिक आर्य ही इकलौती नस्ल थी जिसमें सारी खूबियाँ भरी हुई थीं। कई अवांछित लोगों को यूथेनेशिया (दया मृत्यु) कार्यक्रम के तहत मार दिया गया। इनमें मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति भी शामिल थे।

यहूदियों, रूसी और पोलिश मूल के लोगों पर भी बर्बरता की गई। जब जर्मनी ने पोलैंड और रूस के कुछ हिस्सों पर कब्जा किया तो वहाँ के नागरिकों को गुलाम की तरह काम पर लगा दिया गया। उनमें से अधिकतर लोग अधिक परिश्रम और भुखमरी के कारण मर गये।

यहूदियों की स्थिति: इसाइयों में यहूदियों के खिलाफ घृणा की एक पुरानी परंपरा थी। यहूदियों को यीशू के हत्यारे और सूदखोर के रूप में देखा जाता था। मध्यकाल तक यहूदियों को जमीन के स्वामित्व का अधिकार नहीं था। उनके लिए व्यापार और सूद पर पैसे लगाना ही आजीविका का साधन था। यहूदियों को अक्सर उनकी जमीनों से खदेड़ दिया जाता था और उनपर जुल्म किये जाते थे।

नात्सी चाहते थे कि यहूदियों का समूल नाश कर दिया जाये। 1933 से 1938 के दौरान आतंक के तरह तरह के हथकंडे अपनाकर यहूदियों को देश छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। 1939-1945 के दौरान उन्हें कुछ खास इलाकों (घेट्टो या दड़बा) में जमा करने और फिर बाद में गैस चेंबर में मार देने का लक्ष्य रखा गया।

नस्ली कल्पनालोक (यूटोपिया)

पोलैंड पर कब्जा करने के बाद जर्मनी ने उसका विभाजन कर दिया और उत्तर-पश्चिम के अधिकतर इलाकों को जर्मनी में शामिल कर लिया। पोलिश लोगों को अपने मकान और संपत्ति छोड़कर भागना पड़ा। अब उन मकानों में विस्तरित जर्मनी के इलाकों से जर्मन मूल के लोगों को बसाया जाना था।

पोलिश लोगों को दूसरे हिस्से में भेज दिया गया, जिसे जेनरल गवर्नमेंट का नाम दिया गया। पोलैंड के बुद्धीजीवियों को मार दिया गया ताकि पोलिश लोगों को बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर पर गुलाम बनाया जा सके। जेनरल गवर्नमेंट के इलाके में कुछ विशाल घेट्टो और गैस चेम्बर थे, यानि यही वह स्थान था जहाँ बड़ी संख्या में यहूदियों का नरसंहार हुआ था।

युवाओं की स्थिति

हिटलर का मानना था कि बचपन में ही नात्सी विचारधारा के बारे में पढ़ाने से एक शक्तिशाली नात्सी समाज बनाया जा सकता था। इसलिए सबसे पहले हर स्कूल को साफ और पवित्र किया गया। जो शिक्षक यहूदी थे या राजनैतिक रूप से अविश्वसनीय लगते थे उन्हें हटा दिया गया। अवांछित बच्चों (यहूदी, शारीरिक रूप से विकलांग और जिप्सी) को स्कूल से हटा दिया गया। 1940 में उन सबको गैस चेम्बर में ले जाकर मार दिया गया।

स्कूल के टेक्स्टबुक को नये तरीके से लिखा गया ताकि अच्छे जर्मन बच्चों को एक नई विचारधारा का पाठ पढ़ाया जा सके। सिलेबस में नस्ली विज्ञान को शामिल किया गया ताकि नात्सियों की नस्ली विचारधारा को सही साबित किया जाये।

बच्चों को सिखाया गया कि वे वफादार और आज्ञाकारी बनें, यहूदियों से घृणा करें और हिटलर की पूजा करें। बच्चों को दिमागी रुप से मजबूत बनाने के लिए बॉक्सिंग को बढ़ावा दिया गया।

जर्मनी के युवाओं को राष्ट्रीय समाजवाद का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी पार्टी के युवक संगठनों को दी गई। 10 वर्ष के लड़कों को युंगफोक में दाखिल कर दिया जाता था। 14 वर्ष की आयु के हर लड़के को नात्सी युवक संगठन (हिटलर यूथ) का सदस्य बना दिया जाता था। उसके बाद एक लंबे और कठिन प्रशिक्षण के बाद उन्हें लेबर सर्विस में रखा जाता था। ऐसा अक्सर 18 वर्ष की आयु में होता था। उसके बाद उन्हें सेना में भर्ती किया जाता था और फिर किसी नात्सी संगठन में।

मातृत्व की नात्सी सोच

लड़कों को आक्रामक, मर्दाना और शेर दिल बनने की शिक्षा दी जाती थी। लड़कियों को बताया जाता था कि उन्हें अच्छी माता बनना है और शुद्ध खून वाले आर्य बच्चे पैदा करने हैं। अपनी नस्ल की शुद्धता बरकरार रखने के उद्देश्य से लड़कियों को अवांछित लोगों से दूर रहने को कहा जाता था। यदि कोई औरत किसी अवांछित बच्चे को जन्म देती थी तो उसे इसकी सजा मिलती थी। जो औरत नस्ली तौर पर वांछित बच्चे को जन्म देती थी उसे पुरस्कृत किया जाता था। उन्हें अस्पताल में विशेष सुविधा मिलती थी। उन्हें दुकानों, सिनेमाघरों और रेलवे में छूट भी दी जाती थी। ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से तमगे भी दिये जाते थे। चार बच्चे पैदा होने पर कांसे का तमगा, छ: बच्चे पर चाँदी का और आठ या अधिक बच्चे पैदा करने पर सोने का तमगा मिलता था। जब कोई आर्य महिला बताए हुए रास्ते से भटक जाती थी तो उसका सार्वजनिक तिरस्कार होता था और कड़ी सजा मिलती थी।

प्रचार की कला

नात्सी शासन ने भाषा और मीडिया का प्रभाशाली इस्तेमाल किया था। उन्होंने हत्या या नरसंहार के लिए दस्तावेजों में अन्य शब्दों का इस्तेमाल किया जो भ्रामक थे, जैसे विशेष व्यवहार, अंतिम समाधान, चयन, संक्रमण मुक्ति, आदि। नात्सी विचारधारा को फैलाने के लिए फोटो, फिल्म, रेडियो, पोस्टर, नारों, आदि का इस्तेमाल किया। नात्सी विचारधारा का विरोध करने वालों को अलग अलग दुष्प्रचारों के जरिये बुरा दिखाया जाता था।

अब कई लोग दुनिया को नात्सी के ऐनक से देखने भी लगे थे। यहूदियों के खिलाफ लोगों में जबरदस्त घृणा भर चुकी थी। लोगों को यकीन होने लगा था नात्सी उनके लिए खुशहाली और संपन्नता लाकर ही दम लेंगे।

लेकिन कई लोगों ने इसके खिलाफ आवाज उठाना शुरु किया और पुलिस की बर्बरता और मौत का खतरा भी उठाया। लेकिन जर्मनी की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मूक दर्शक बना रहा। वे इतने डरे हुए थे कि विरोध के स्वर नहीं उठा पाते थे।

महाध्वंस (होलोकॉस्ट)

नात्सी सत्ता के आखिरी वर्षों में जाकर जर्मनी में नात्सियों के अत्याचार की थोड़ी बहुत खबरें बाहर पहुँचने लगीं। लेकिन युद्ध के समाप्त होने के बाद ही दुनिया को यहूदियों तथा अन्य लोगों पर होने वाली भयावहता की असली तसवीर का पता चला। कई यहूदियों ने डायरी या नोटबुक में अपने अनुभव लिखकर सुरक्षित जगहों पर छुपा दिया था। उन्हें शायद भरोसा था कि उनके मरने के बाद कभी न कभी दुनिया को असलियत मालूम होगी। जब नात्सी नेतृत्व को लगने लगा कि वे युद्ध हारने वाले हैं तो अपने कार्यकर्ताओं में पेट्रोल बँटवा दिया ताकि सबूतों को नष्ट किया जा सके।